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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-31

अफसरों पर भारी पड़ा बुलडोजर एक्शन, सुप्रीम कोर्ट ने दिए 25 लाख मुआवजा देने के आदेश; डीएम, एसपी समेत 27 के खिलाफ मामला दर्ज

Supreme Court: महाराजगंज में सड़क के चौड़ीकरण के लिए घरों को बुलडोजर से गिराने की कार्रवाई अब अफसरों पर उल्‍टी पड़ने लगी है। अब तत्‍कालीन डीएम, तत्‍कालीन एडीएम, तत्‍कालीन एडिशनल एसपी, तत्‍कालीन कोतवाल सहित 27 लोगों के खिलाफ केस दर्ज हो गया है। मामले में 26 नामजद आरोपी हैं। केस याचिकाकर्ता मनोज टिबरेवाल की तहरीर के आधार पर महाराजगंज की कोतवाली में दर्ज हुआ है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार को याचिकाकर्ता को 25 लाख रुपए अंतरिम मुआवजा देने का भी निर्देश दिया था।

छह नवंबर 2024 को तत्‍कालीन मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा था कि प्रक्रिया का पालन किए बगैर किसी के घरों में घुसना, तोड़ना अराजकता है। पीठ ने सड़कें चौड़ी करने एवं अतिक्रमण हटाने के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया पर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश जारी करते हुए यह टिप्पणी की थी। पीठ ने यूपी सरकार को महराजगंज के हामिद नगर इलाके में 2019 में सड़क चौड़ी करने के लिए घरों को तोड़े जाने के मसले पर पीड़ित मनोज टिबरेवाल की ओर से भेजे पत्र पर 2020 में स्वत: संज्ञान लेकर शुरू किए गए मामले में यह आदेश दिया था।

कोर्ट ने सड़क चौड़ा करने के लिए उचित प्रक्रिया का पालन किए बगैर लोगों के घरों को तोड़े जाने पर यूपी सरकार को कड़ी फटकार लगाई थी। शीर्ष अदालत ने इसे गंभीरता से लेते हुए महराजगंज में लोगों के घरों को तोड़ने के लिए अधिकारियों द्वारा की गई कार्रवाई को अत्याचारी कृत्य और अवैध बताते हुए कहा था कि आप (राज्य सरकार) रातों-रात लोगों के घरों को बुलडोजर से नहीं गिरा सकते।

सुनवाई के दौरान जस्टिस पारदीवाला ने यूपी सरकार से कहा था कि आप घर में रहने वाले लोगों को खाली करने का समय नहीं देते, घरेलू सामानों का क्या? किसी भी तरह की कार्रवाई के लिए उचित प्रक्रिया का पालन होना चाहिए। सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार के वकील ने कहा कि लोगों ने सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण किया था। इस पर तत्‍कालीन मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि आप कहते हैं कि वह 3.7 वर्गमीटर का अतिक्रमणकर्ता था, हम इसे सुन रहे हैं, लेकिन आप इस बारे में कोई प्रमाण नहीं दे रहे हैं। मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि तथ्यों से साफ पता चलता है कि कार्रवाई करने से पहले कोई नोटिस जारी नहीं किया गया था, आप केवल साइट पर गए थे और लोगों को सूचित किया था। हम इस मामले में दंडात्मक मुआवजा देने के इच्छुक हो सकते हैं। क्या इससे न्याय का उद्देश्य पूरा होगा। सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार के वकील ने कहा कि कार्रवाई में 123 अवैध निर्माण थे।

इस पर जस्टिस पारदीवाला ने यूपी सरकार से कहा कि आप यह किस आधार पर कह रहे हैं कि लोगों का घर अवैध था? आपने 1960 से क्या किया है? पिछले 50 साल से आप क्या कर रहे थे? बहुत अहंकारी, राज्य सरकार को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आदेशों का कुछ सम्मान करना होगा, आप चुपचाप बैठे हैं और एक अधिकारी के कार्यों की रक्षा कर रहे हैं।

केवल ढोल बजाकर घर खाली करने को नहीं कह सकते

जस्टिस पारदीवाला ने राज्य सरकार के वकील से कहा था कि आपके अधिकारी ने पिछली रात सड़क चौड़ीकरण के लिए पीले निशान वाली जगह को तोड़ दिया, अगले दिन सुबह आप बुलडोजर लेकर आ गए। उन्होंने कहा कि यह पूरी तरह से मनमानापूर्ण कार्रवाई है, आप केवल मौके पर गए और लाउडस्पीकर के माध्यम से लोगों को सूचित किया। आप केवल ढोल बजाकर लोगों को घर खाली करने और उन्हें ध्वस्त करने के लिए नहीं कह सकते। उचित सूचना होनी चाहिए। पीठ ने एनएचआरसी की जांच रिपोर्ट पर गौर किया था, जिसमें खुलासा हुआ कि ध्वस्तीकरण की कार्रवाई कथित अतिक्रमण से कहीं अधिक व्यापक थी।

सुप्रीम कोर्ट ने मुख्‍य सचिव को दिया था कार्रवाई का आदेश

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए यूपी के मुख्य सचिव को अवैध तरीके से लोगों के घरों को तोड़ने के पूरे मामले की जांच करने का आदेश दिया था। पीठ ने मुख्य सचिव को अधिकारियों और ठेकेदारों की भूमिका की जांच कर सभी पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का आदेश दिया था। कोर्ट ने न सिर्फ याचिकाकर्ता मनोज टिबरेवाल बल्कि अन्य लोगों के घर को तोड़े जाने की कार्रवाई की जांच करने और एक महीने में रिपोर्ट पेश करने को कहा था। पीठ ने यूपी सरकार को जांच के बाद कानून की प्रक्रिया के उल्लंघन में कार्यों की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए अधिकारियों और ठेकेदारों के खिलाफ आपराधिक प्रकृति की कार्रवाई सहित उचित कार्रवाई करने का आदेश दिया था।

फरेंदा रोड पर 100 से अधिक मकानों में हुई थी तोड़फोड़

सड़क चौड़ीकरण के दौरान वर्ष 2019 में महराजगंज में सौ से अधिक मकानों-दुकानों में तोड़फोड़ हुई थी। कई मकानों पर प्रशासन का बुलडोजर चला था तो बहुतों ने खुद ही अपना आशियाना तोड़कर अतिक्रमण की जद से बाहर आने की कोशिश की थी। महराजगंज शहर के फरेंदा रोड का 2019 में चौड़ीकरण हो रहा था। सड़क के दोनों किनारों पर नाले के साथ साइड रोड बनाने का काम शुरू हुआ था। शहर के मुख्य चौराहे से लेकर जिला मुख्यालय तक सौ से अधिक मकान व दुकान दोनों ओर चिह्नित किए गए जो अतिक्रमण की जद में आ रहे थे। एनएचएआई ने मकानों व दुकानों पर लाल मार्क लगाए। शुरुआत में एक-दो मकानों का अतिक्रमण जेसीबी से हटवाया गया तो बहुतों ने खुद मजदूर लगाकर मकानों को तोड़वाया।

इसी बीच मुख्य चौराहे पर स्थित पत्रकार मनोज टिबड़ेवाल के मकान को 13 सितंबर-2019 को जेसीबी लगाकर तोड़ा गया था। इस मामले में मनोज टिबड़ेवाल का कहना है कि उनके दादा ने 1960 में बैनामें में यह जमीन खरीदी थी। जिला प्रशासन ने उनके मकान को गिरवा दिया था और 123 लोगों के मकान दहशत फैलाकर खुद तुड़वा दिए गए। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने जबरन अवैध तरीके से मकान गिराने की बात कहते हुए राज्य सरकार को तत्काल 25 लाख का अंतरिम मुआवजा देने का आदेश दिया है। सभी दोषियों के खिलाफ जांच का आदेश हुआ है और एक महीने के अंदर सभी दोषियों के खिलाफ क्रिमिनल और विभागीय कार्रवाई भी करने को कहा है। कहा कि इस फैसले से सभी को मुआवजा मिलने का रास्ता साफ हुआ है।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-31

डल्लेवाल का आमरण अनशन 36वें दिन में कर गया प्रवेश, सुप्रीम कोर्ट में होगी सुनवाई; आज किसानों से बात करेगा पैनल

Dallewal fast unto death: किसान संगठनों ने सोमवार को 9 घंटे के बंद का आह्वान किया था। किसानों के आंदोलन के चलते सोमवार को कुछ घंटों के लिए पंजाब की रफ्तार थम गई। किसान मंजदूर मोर्चा और संयुक्त किसान मोर्चा गैरराजनीतिक ने बंद का ऐलान किया था। वहीं आज सुप्रीम कोर्ट आमरण अनशन पर बैठे किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल के स्वास्थ्य को लेकर सुनवाई करने वाला है। डल्लेवाल पिछले 35 दिनों से भूख हड़ताल कर रहे हैं। उन्होंने अस्पताल में इलाज करवाने से इनकार कर दिया है। पिछली सुनवाई में भी सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब सरकार का फटकार लगाते हुए कहा था कि उन्हें किसी तरह इलाज के लिए मनाया जाए।

वहीं सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाया गया पैनल भी 3 जनवरी को किसानों से बात करने वाला है। सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के पूर्व जज नवाब सिंह की अध्यक्षता में पैनल बनाया था। पैनल ने किसानों को वर्चुअल मीटिंग के लिए न्योता भेज दिया है। पैनल में हरियाणा के पूर्व डीजीपी बीएस संधू, कृषि एक्सपर्ट देविंदर शर्मा, प्रोफेसर रंजीत सिंह घुम्मन और पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना के प्रोफेसर डॉ. सुखपाल सिंह शामिल हैं।

किसान प्रतिनिधियों ने कन्फर्म किया है कि उन्हें 3 जनवरी को बातचीत करने का न्योता मिला है। कमेटी बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसानों से बात करके उनकी समस्याओं को सुना जाए और उनसे हाइवे के पास से ट्रैक्टर. ट्रॉली और टेंट हटाने का आग्रह किया जाए। बेंच ने कहा था, हमें लगता है कि किसानों को विश्वास में लेना सबसे ज्यादा जरूरी है। बिना देरी के शंभू बॉर्डर और हाइवे से किसानों को हटाने के लिए कमेटी जो भी सुझाव देगी उसपर गंभीरता से विचार किया जाएगा। इससे आम जनता को भी बड़ी राहत मिलेगी। इसके अलावा किसानों को भी राजनीतिक दलों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए।

बता दें कि सोमवार को सुबह 7 बजे से शाम के 4 बजे तक पंजाब में कई जगहों पर बंद काअसर दिखाई दिया। वंदेभारत सहित 172 ट्रेनों को रद्द कर दिया गया। वहीं 232 ट्रेनें प्रभावित हुईं। बड़ी संख्या में दुकानें और कारखाने भी बंद रहे। केकेएम और एसकेएम एनपी ने भी इस बंद का समर्थन किया। केकेयू के प्रेसिडेंट दर्शन पाल सिंह ने कहा. हमारे किसानों ने भी 12 जिलों में बंद का समर्थन किया। हम शंभू बॉर्डर और खनौरी बॉर्डर पर बैठे किसानों की मांगों का समर्थन करते हैं।

डल्लेवाल ने इलाज से किया इनकार

अनशन कर रहे किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल को अस्पताल ले जाने के लिए उच्चतम न्यायालय की समय सीमा तेजी से नजदीक आने के बीच सोमवार को पंजाब सरकार ने डल्लेवाल को चिकित्सा सहायता लेने के लिए मनाने के प्रयास तेज कर दिए। हालांकि, उन्होंने फिर से इनकार कर दिया।पिछले कुछ दिनों में पूर्व अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक जसकरण सिंह के नेतृत्व में राज्य सरकार की एक टीम ने डल्लेवाल को चिकित्सा सहायता लेने के लिए मनाने के कई प्रयास किए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में पंजाब सरकार को डल्लेवाल को अस्पताल में भर्ती कराने के लिए 31 दिसंबर तक का समय दिया है, साथ ही राज्य सरकार को आवश्यकता पड़ने पर केंद्र से सहायता लेने की भी छूट दी है।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-30

रिश्तेदार नहीं बनेंगे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज, कॉलेजियम प्रक्रिया में होगा बड़ा बदलाव, जानें क्या है कारण

Delhi News: उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर ऐसी धारणा अकसर बनाई जाती रही है कि पहली पीढ़ी के वकीलों को चयन प्रक्रिया में तवज्जो नहीं दी जाती। इसकी बजाय ऐसे लोगों को जज के तौर पर प्रमोट किया जाता है, जो दूसरी पीढ़ी के वकील हों और उनके परिजन पहले से जज हों। अब इस धारणा को खत्म करने की पहल कॉलेजियम की ओर से हो सकती है। अब कहा जा रहा है कि कॉलेजियम ऐसे लोगों के नामों को आगे बढ़ाने से परहेज करेगा, जिनकी परिजन या रिश्तेदार पहले से हाई कोर्ट या फिर उससे उच्चतम न्यायालय के जज हों। यदि ऐसा हुआ तो फिर जजों का चयन करने वाली कॉलेजियम की प्रक्रिया में यह बड़ा बदलाव होगा। बता दें कि जजों में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है, जिनका कोई फैमिली मेंबर या फिर रिश्तेदार पहले भी लीगल प्रोफेशन से जुड़े रहे हैं।

जानकारी मिली है कि कॉलेजिमय में शामिल कुछ जजों का ही प्रस्ताव था कि ऐसे लोगों के नामों को आगे न बढ़ाया जाए, जिनके परिजन या रिश्तेदार पहले से जज हैं या फिर रह चुके हैं। इस बारे में जब मंथन हुआ तो यह बात भी उठी कि इस तरह का फैसला लेने से तो कुछ ऐसे लोग भी छंट जाएंगे, जो योग्य हैं। इस पर कॉलेजियम में ही दलील दी गई कि ये लोग एक सफल वकील के तौर पर अच्छी जिंदगी गुजार सकते हैं। इन लोगों के पास पैसे कमाने के अवसरों की भी कमी नहीं होगी। भले ही कुछ लोगों के लिए यह नुकसानदायक होगा, लेकिन व्यापक हित में यह फैसला गलत नहीं है। क़ॉलेजियम की ओर से खुद ही इस तरह का फैसला लेना मायने रखता है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संवैधानिक बेंच ने 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को खारिज कर दिया था।

इस संस्था के गठन से जुड़े कानून को सरकार ने संसद से सर्वसम्मति से पारित करा लिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी थी। ऐसे में अब कॉलेजियम की ओर से खुद ही जजों की नियुक्ति प्रक्रिया सुधार का प्रस्ताव लाना अहम है। दरअसल सुप्रीम कोर्ट में तब NJAC को खारिज किया गया था, तब उसका पक्ष रखते हुए एक वकील ने परिवारवाद वाली दलील दी थी। वकील का कहना था कि ऐसी भावना लोगों के मन में है कि कॉलेजियम सिस्टम में जज ही जज को चुनते हैं। यह ऐसा ही है कि आप मेरी पीठ खुजलाएं और मैं आपकी। इसके माध्यम से कई बार ऐसे लोग ही चुने जाते हैं, जिनके परिवारों के लोग पहले से ही न्यायिक व्यवस्था में बैठे हैं। एक वकील ने कहा था कि ऐसे 50 फीसदी जज हाई कोर्ट में हैं, जिनके परिजन पहले से ही अदालत में थे।

माना जा रहा है कि उस धारणा को तोड़ने के लिए कॉलेजियम में बदलाव की व्यवस्था की जा रही है। हालांकि अभी यह महज एक प्रस्ताव ही है। इस पर अमल होने में अभी वक्त लगेगा। बता दें कि कॉलेजियम सिस्टम की आलोचना भी कई बार सरकार की ओर से की जाती रही है। इसके अलावा सिविल सोसाय़टी में भी कॉलेजियम सिस्टम की खामियों पर चर्चा होती रही है। गौरतलब है कि कॉलेजियम सिस्टम में एक और सुधार हाल ही में देखने को मिला है। अब कॉलेजियम में शामिल जज नियुक्ति से पहले संबंधित लोगों से मुलाकात भी कर रहे हैं और इंटरव्यू आदि लेते हैं।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-24

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने जजों की नियुक्ति में किया बड़ा बदलाव, परम्परा तोड़कर उठाया यह बड़ा कदम

Supreme Court Collegium: सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने रविवार को हाईकोर्ट के जजों से बातचीत कर ऐतिहासिक कदम उठाया। कॉलेजियम का मानना है कि जजों की नियुक्ति के लिए फाइलों में दर्ज जानकारी के बजाय उम्मीदवारों से व्यक्तिगत बातचीत कर उनकी योग्यता और व्यक्तित्व को समझना जरूरी है। इस पहल को पारंपरिक प्रक्रिया से हटकर न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता और विश्वसनीयता को बढ़ावा देने की दिशा में एक नई शुरुआत माना जा रहा है।

गौरतलब है कि यह कदम तब उठाया गया जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस शेखर कुमार यादव के विवादित बयानों को लेकर न्यायपालिका में गंभीर चिंता जताई गई थी। उन्होंने विश्व हिंदू परिषद (VHP) के एक कार्यक्रम में धर्म और न्याय से जुड़ी टिप्पणी की थी, जिसे संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ माना गया था। जिसमें चीफ जस्टिस (CJI) संजीव खन्ना और अन्य सदस्य जस्टिस भूषण आर गवई और जस्टिस सूर्यकांत वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने राजस्थान, इलाहाबाद और बॉम्बे हाईकोर्ट के लिए नामित न्यायिक अधिकारियों और वकीलों से मुलाकात की।

न्यायपालिका में विवाद के बाद सक्रिय हुआ कॉलेजियम

इससे पहले जस्टिस यादव ने विहिप के एक कार्यक्रम में कहा था कि “केवल हिंदू ही भारत को ‘विश्व गुरु’ बना सकते हैं” और समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने की वकालत की थी। इस बयान की काफी आलोचना हुई थी और विपक्षी सांसदों ने उनके खिलाफ महाभियोग की मांग उठाई थी।

17 दिसंबर को कॉलेजियम ने जस्टिस यादव से मुलाकात कर उनकी टिप्पणियों पर चर्चा की थी। मुख्य न्यायाधीश ने उन्हें फटकार लगाई थी और न्यायिक निष्पक्षता बनाए रखने और संविधान के मूल्यों का पालन करने की जरूरत पर बल दिया था। हालांकि, उनके भविष्य को लेकर कोई अंतिम फैसला नहीं हुआ है, लेकिन उनके तबादले और आंतरिक जांच पर तलवार लटकी हुई है।

कॉलेजियम की यह पहल न्यायिक प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष बनाने का प्रयास है। यह परंपरा 2018 में तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा के कार्यकाल में शुरू हुई थी, लेकिन बाद में इसे बंद कर दिया गया था। अब इसे फिर से शुरू करते हुए कॉलेजियम ने व्यक्तिगत संवाद के जरिए जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को नई दिशा दी है।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-21

पहली पत्नी को दिए 500 करोड़, दूसरी पत्नी ने भी मांगा उतना ही गुजारा भत्ता; जानें क्या बोला सुप्रीम कोर्ट

Delhi News: भारत में जन्मे और अमेरिका में एक सफल आईटी कंसल्टेंसी सेवा चलाने वाले एक व्यक्ति को शादी और तलाक की भारी कीमत चुकानी पड़ी। नवंबर 2020 में अपनी पहली पत्नी को 500 करोड़ रुपये के गुजारा भत्ते के रूप में देने के बाद, अब सुप्रीम कोर्ट ने उनकी दूसरी पत्नी को 12 करोड़ रुपये देने का आदेश दिया है। उनकी दूसरी शादी केवल कुछ ही महीनों तक चली थी।

इस व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर अपनी “पूरी तरह से टूट चुकी” शादी को रद्द करने की मांग की थी। उनकी दूसरी शादी 31 जुलाई 2021 को हुई थी और कुछ ही महीनों बाद टूट गई। दूसरी पत्नी ने स्थायी गुजारा भत्ते की मांग करते हुए कहा कि उसे भी पहले पत्नी के बराबर भुगतान मिलना चाहिए।

पत्नी की मांग पर अदालत की टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना और पंकज मिथल की पीठ ने दूसरी पत्नी की मांग को खारिज करते हुए कहा कि पहली पत्नी के साथ कई वर्षों तक वैवाहिक जीवन बिताने की तुलना में दूसरी पत्नी का मामला अलग है। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने अपने 73 पेज के निर्णय में लिखा, “हमें उस प्रवृत्ति पर गंभीर आपत्ति है, जहां पक्षकार अपने जीवनसाथी की संपत्ति, स्थिति और आय को आधार बनाकर समान धनराशि की मांग करते हैं।” उन्होंने सवाल उठाया कि अगर जीवनसाथी की संपत्ति अलग होने के बाद कम हो जाए, तो ऐसी मांगें क्यों नहीं की जातीं?

गुजारा भत्ता का उद्देश्य

अदालत ने कहा कि गुजारा भत्ता का उद्देश्य अलग हो चुकी पत्नी को गरीबी से बचाना, उसकी गरिमा बनाए रखना और सामाजिक न्याय प्रदान करना है। पीठ ने कहा, ” कानून के अनुसार, पत्नी को यथासंभव वैसी ही जीवनशैली में रहने का अधिकार है जैसी वह अपने वैवाहिक घर में रहती थी जब दोनों साथ रहते थे। लेकिन एक बार जब पति-पत्नी अलग हो जाते हैं, तो पति से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह जीवन भर अपनी वर्तमान स्थिति के अनुसार पत्नी का खर्च उठाता रहे।”

पति की तरक्की के आधार पर गुजारा भत्ता

अदालत ने यह भी कहा कि अगर पति अलग होने के बाद जीवन में बेहतर कर रहा है, तो उससे यह कहना कि वह हमेशा पत्नी की स्थिति को अपनी बदलती स्थिति के अनुसार बनाए रखे, उसकी व्यक्तिगत प्रगति पर बोझ डालना होगा। अदालत ने सवाल उठाया, “अगर पति अलग होने के बाद दुर्भाग्यवश गरीब हो जाए, तो क्या पत्नी अपनी संपत्ति को बराबरी पर लाने की मांग करेगी?”

सुप्रीम कोर्ट ने ₹12 करोड़ के गुजारा भत्ते को उचित मानते हुए कहा कि यह दूसरी पत्नी को उसकी जरूरतों और स्थिति के आधार पर दिया जा रहा है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि गुजारा भत्ता का उद्देश्य सामाजिक न्याय और गरिमा की रक्षा करना है, न कि जीवनसाथी की संपत्ति के साथ बराबरी करना।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-21

गैंगस्टर लॉरेंस बिश्नोई के नाम पर दी धमकी, बलात्कार भी किया; सुप्रीम कोर्ट ने दी जमानत

Delhi News: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में पंजाब के एक व्यक्ति को जमानत दी है, जिसे बलात्कार और गैंगस्टर लॉरेंस बिश्नोई के नाम पर धमकी देने के आरोप में बुक किया गया था। आरोपी ने अपनी जमानत याचिका में दावा किया कि वह शिकायतकर्ता महिला के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में था, लेकिन बाद में उस महिला ने पंजाब पुलिस के एसपी स्तर के एक अधिकारी के साथ संबंध बना लिए।

आरोपी ने यह भी आरोप लगाया कि उस अधिकारी ने पुलिस तंत्र का दुरुपयोग करते हुए उसे झूठे मामले में फंसाया। जमानत याचिका में आरोपी ने व्हाट्सएप चैट्स और एक कॉल रिकॉर्डिंग जैसे तथाकथित सबूत पेश किए, जिनमें उस पुलिस अधिकारी द्वारा शिकायतकर्ता (महिला) को फोन करने का जिक्र था।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, आरोपी के वकील आर.के. ग्रेवाल ने अदालत में तर्क दिया, “इस बात का कोई ठोस सबूत नहीं है कि याचिकाकर्ता ने शिकायतकर्ता (महिला) को गैंगस्टर लॉरेंस बिश्नोई के नाम पर धमकी दी। शिकायतकर्ता ने पुलिस विभाग में तैनात अधिकारी के प्रभाव में आकर झूठी कहानी गढ़ी। व्हाट्सएप चैट्स और वीडियो रिकॉर्डिंग से यह स्पष्ट है कि पुलिस अधिकारी शिकायतकर्ता के साथ रिश्ते में था और वह याचिकाकर्ता के साथ उसके संबंध को बर्दाश्त नहीं कर सका।”

इस मामले में शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि आरोपी ने लॉरेंस बिश्नोई के नाम पर उसे धमकाया था। हालांकि, अदालत ने कहा कि इस दावे का समर्थन करने के लिए कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए आरोपी को जमानत दे दी। मामले की आगे की जांच अभी जारी है।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-21

सुप्रीम कोर्ट ने 2024 में इलेक्ट्रल बॉन्ड और बुलडोजर एक्शन समेत इन मामलों में दिए यह 10 टॉप फैसले, पढ़ें डिटेल

Supreme Court top 10 Judgement of 2024: सुप्रीम कोर्ट ने साल 2024 में कई ऐतिहासिक फैसले सुनाए। देश की सर्वोच्च अदालत ने अरविंद केजरीवाल को बेल देने से लेकर उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार की बहुचर्चित ‘बुलडोजर जस्टिस’ पर भी अपना फैसला सुनाया। ‘सुप्रीम कोर्ट ऑब्जर्वर’ की रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल कोर्ट ने कई अहम फैसले दिए, जिनका राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा है।

सुप्रीम कोर्ट के द्वारा 2024 में सुनाए गए 10 बड़े फैसले:

1. बिलकिस बानो केस: इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दोषियों को दी गई छूट को वापस ले लिया। बिलकिस याकूब राशूल बनाम भारत सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट की 2 जजों की पीठ ने गुजरात सरकार द्वारा बिलकिस बानो के मामले में 11 दोषियों की रिहाई को लेकर दिए गए निर्णय को रद्द कर दिया। इन दोषियों पर 2002 के गुजरात दंगों के दौरान बानो के परिवार के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या का आरोप था। कोर्ट ने इसे प्रशासनिक अधिकार के बावजूद न्यायिक समीक्षा योग्य माना और गुजरात सरकार के इस कदम को दोषियों की मदद करने वाला करार दिया।

2. इलेक्ट्रल बॉन्ड की वैधता: 2024 के लोकसभा चुनावों के आसपास सुप्रीम कोर्ट ने 2018 के इलेक्ट्रल बॉन्ड योजना को रद्द कर दिया। इस योजना के तहत कंपनियां, व्यक्ति और संगठन राजनीतिक दलों को गुप्त रूप से दान कर सकते थे। कोर्ट ने इस योजना को पारदर्शिता की दृष्टि से असफल करार दिया और चुनाव आयोग और भारतीय स्टेट बैंक को इस डेटा को सार्वजनिक करने का आदेश दिया।

3. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जमानत: दिल्ली शराब नीति घोटाले में गिरफ्तार अरविंद केजरीवाल को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दी। इस फैसले ने पीएमएलए में जमानत के कड़े मानदंडों की व्याख्या को नरम किया और राजनीतिक दलों के नेताओं की जमानत के मामलों में नए दृष्टिकोण का रास्ता खोला।

4. आरक्षित श्रेणियों में उप-वर्गीकरण की वैधता: सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षित वर्गों (SC/ST) के भीतर उप-वर्गीकरण की शक्ति को वैध ठहराया। यह निर्णय राज्यों को विशेष वर्गों के भीतर उप-वर्गीकरण करने का अधिकार देता है, जिससे समाज के भीतर समानता सुनिश्चित हो सके।

5. खनिज और खदानों पर कराधान और औद्योगिक शराब पर नियम: खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकरण बनाम स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया; उत्तर प्रदेश सरकार बनाम ललता प्रसाद वैष केस में नौ जजों की पीठ ने केंद्र और राज्यों के बीच कानून बनाने की शक्तियों के विभाजन को स्पष्ट किया। कोर्ट ने यह माना कि राज्यों को औद्योगिक शराब के नियमन का अधिकार है और केंद्र को इससे हटकर कोई कानून बनाने का अधिकार नहीं है।

6. चाइल्ड पोर्नोग्राफी रखने को दंडनीय अपराध बनाना: जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रन एलायंस बनाम एस हरिश केस में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि बच्चों से जुड़ी यौन उत्पीड़न और शोषण सामग्री (CSEAM) को रखना और इसे शेयर करना दंडनीय अपराध है। यह निर्णय सोशल मीडिया कंपनियों के लिए एक चुनौती बन गया है क्योंकि अब उन्हें ऐसे सामग्री को शीघ्र हटाने का आदेश दिया गया है।

7. नागरिकता अधिनियम की धारा 6A की वैधता (असम समझौता): इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने असम समझौते के तहत नागरिकता प्राप्त करने की शर्तों को बरकरार रखा और धारा 6A को संविधान के अनुकूल ठहराया। इस निर्णय ने असम की सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करते हुए कई शरणार्थियों के लिए नागरिकता का मार्ग प्रशस्त किया।

8. निजी संपत्ति को सामुदायिक संसाधन मानने का सवाल: कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि निजी संपत्ति केवल तब सामुदायिक संसाधन मानी जा सकती है जब वह विशेष मानदंडों को पूरा करती हो, जैसे कि राष्ट्रीयकरण और अधिग्रहण।

9. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) का अल्पसंख्यक दर्जा: सुप्रीम कोर्ट ने 57 साल पुरानी एक प्रथा को पलटते हुए यह निर्णय दिया कि यदि कोई संस्थान अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित किया गया था, तो उसे अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त हो सकता है, भले ही वह कानून द्वारा स्थापित हो।

10. बुलडोजर ऐक्शन को रोकने के दिशा-निर्देश: सुप्रीम कोर्ट ने अवैध रूप से किए गए बुलडोज़र विध्वंस पर कड़ी कार्रवाई की। कोर्ट ने नियमों के तहत विध्वंस के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए, जिसमें नोटिस देने और व्यक्तिगत सुनवाई की आवश्यकता शामिल थी।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-20

सुप्रीम कोर्ट ने हाशिमपुरा नरसंहार के दो और दोषियों को दी जमानत, कुल 38 मुस्लिमों को उतारा था मौत के घाट

Delhi News: सुप्रीम कोर्ट (SC) ने शुक्रवार को 1987 के हाशिमपुरा नरसंहार मामले में दोषी ठहराए गए दो और व्यक्तियों को जमानत दे दी। न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि दोनों दोषियों ने अब तक छह साल से अधिक की सजा काट ली है, जिसके आधार पर उन्हें जमानत का अधिकार है।

इससे पहले इसी महीने सुप्रीम कोर्ट ने 10 अन्य दोषियों को भी जमानत दी थी। ये सभी 2018 से जेल में थे, जब दिल्ली हाईकोर्ट ने उनके बरी किए जाने के फैसले को पलटकर उन्हें दोषी ठहराया था। आज जमानत पाने वाले एक दोषी की उम्र 82 वर्ष है। 2018 में दिल्ली हाईकोर्ट ने उन्हें और 15 अन्य को लगभग 40 मुस्लिम पुरुषों की हत्या के मामले में दोषी ठहराया था।

क्या है हाशिमपुरा नरसंहार मामला?

हाशिमपुरा नरसंहार 22 मई 1987 को हुआ था। सांप्रदायिक तनाव के दौरान इस दिन उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के हाशिमपुरा क्षेत्र से ‘प्रादेशिक आर्म्ड कान्स्टेबुलरी’ (पीएसी) के जवानों ने करीब 50 मुस्लिम पुरुषों को उठाया। उन्हें एक ट्रक में बिठाकर एक नहर के पास ले जाया गया। सांप्रदायिक दंगों के कारण पीड़ितों को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के बहाने शहर के बाहरी इलाके में ले जाया गया था, जहां उन्हें गोली मार दी गई और उनके शवों को एक नहर में फेंक दिया गया था। इस घटना में 38 लोगों की मौत हो गई थी तथा केवल पांच लोग ही इस भयावह घटना को बयां करने के लिए बचे

अदालत का अब तक का फैसला

अधीनस्थ अदालत ने 2015 में 16 पीएसी कर्मियों को उनकी पहचान और संलिप्तता को साबित करने वाले साक्ष्यों के अभाव का हवाला देते हुए बरी कर दिया था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2018 में अधीनस्थ अदालत के फैसले को पलट दिया और 16 आरोपियों को भारतीय दंड संहिता की धाराओं 302 (हत्या), 364 (हत्या के लिए अपहरण) और 201 (साक्ष्य मिटाना) के साथ धारा 120 बी (आपराधिक साजिश) के तहत दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। दोषियों ने उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी और उनकी अपील शीर्ष अदालत में लंबित हैं।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-20

महिलाओं को भलाई के लिए हैं कानून, न की पति को दंडित करने, धमकाने या जबरन वसूली के लिए; सुप्रीम कोर्ट

Delhi News: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि कानून के सख्त प्रावधान महिलाओं की भलाई के लिए हैं न कि उनके पतियों को ‘दंडित करने, धमकाने, उन पर हावी होने या उनसे जबरन वसूली करने’ के लिए। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस पंकज मिथल ने कहा कि हिंदू विवाह एक पवित्र प्रथा है, जो परिवार की नींव है, न कि कोई व्यावसायिक समझौता।

पीठ ने कहा कि विशेष रूप से वैवाहिक विवादों से संबंधित अधिकांश शिकायतों में दुष्कर्म, आपराधिक धमकी और विवाहित महिला से क्रूरता करने सहित भारतीय दंड संहिता की कई धाराओं को लगाने के लिए शीर्ष अदालत ने कई मौकों पर फटकार लगाई है।

पीठ ने कहा, ‘महिलाओं को इस बात को लेकर सावधान रहने की जरूरत है कि उनके हाथों में कानून के ये सख्त प्रावधान उनकी भलाई के लिए हैं, न कि उनके पतियों को दंडित करने, धमकाने, उन पर हावी होने या उनसे जबरन वसूली करने के साधन के रूप में हैं।’

पीठ ने यह टिप्पणी अलग-अलग रह रहे एक दंपति के विवाह को समाप्त करते हुए कहा कि यह रिश्ता पूरी तरह से टूट चुका है। पीठ ने कहा, ‘आपराधिक कानून के प्रावधान महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तीकरण के लिए हैं लेकिन कभी-कभी कुछ महिलाएं इनका इस्तेमाल ऐसे उद्देश्यों के लिए करती हैं, जिनके लिए वे कभी नहीं होते।’

इस मामले में पति को एक महीने के भीतर अलग रह रही पत्नी को उसके सभी दावों के पूर्ण और अंतिम निपटान के रूप में स्थायी गुजारा भत्ता के रूप में 12 करोड़ रुपये का भुगतान करने का आदेश दिया गया था।

अदालत का यह फैसला जुलाई 2021 में शादी के बंधन में बंधे एक जोड़े को लेकर था। इसमें अमेरिका में IT कंस्लटेंट के तौर पर काम करने वाले पति ने शादी पूरी तरह से खत्म होने का हवाला देकर तलाक की मांग की थी। इधर, पत्नी ने तलाक का विरोध किया और पति की पहली पत्नी को मिली 500 करोड़ रुपये की रकम के बराबर गुजारा भत्ता मांगा।

पीठ ने हालांकि उन मामलों पर टिप्पणी की, जहां पत्नी और उसके परिवार इन गंभीर अपराधों के लिए आपराधिक शिकायत को बातचीत के लिए एक मंच के रूप में और पति व उसके परिवार से अपनी मांगों को पूरा करने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करते हैं।

शीर्ष अदालत ने कहा कि पुलिस कभी-कभी चुनिंदा मामलों में कार्रवाई करने में जल्दबाजी करती है और पति या यहां तक ​​कि उसके रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर लेती है, जिसमें वृद्ध और बिस्तर पर पड़े माता-पिता व दादा-दादी भी शामिल होते हैं। पीठ ने कहा कि वहीं अधीनस्थ न्यायालय भी प्राथमिकी में ‘अपराध की गंभीरता’ के कारण आरोपी को जमानत देने से परहेज करते हैं।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-20

धर्म संसद मामले में सुप्रीम कोर्ट का बड़ा एक्शन, याचिकाकर्ता वकील प्रशांत भूषण को हाई कोर्ट भेजा

Delhi News: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को गाजयाबाद में विवादित हिंदू साधु यति नरसिंहानंद द्वारा प्रस्तावित धर्म संसद के खिलाफ दायर याचिका को खारिज कर दिया। याचिका में उत्तर प्रदेश प्रशासन पर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार नफरत भरी भाषणों के खिलाफ कार्रवाई न करने का आरोप लगाया गया था और इस आयोजन में भड़काऊ भाषणों की आशंका जताई गई थी।

मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि वह याचिका पर विचार नहीं करना चाहती। बेंच ने अपने पहले के आदेशों को दोहराया जिसमें जिला अधिकारियों को सभी एहतियाती कदम उठाने का निर्देश दिया था। अदालत ने याचिकाकर्ताओं को इस मुद्दे पर हाईकोर्ट से संपर्क करने का निर्देश दिया।

‘बार एंड बेंच’ की रिपोर्ट के मुताबिक, अदालत ने कहा, “हमारे पास अन्य मामले भी हैं जो उतने ही गंभीर हैं। यदि हम इस पर विचार करते हैं तो हम बाढ़ में डूब जाएंगे। आपको हाईकोर्ट से संपर्क करना होगा। हम इस पर विचार नहीं कर सकते।” कोर्ट ने इस मामले में वीडियो रिकॉर्डिंग के लिए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल से भी निगरानी रखने को कहा।

याचिकाकर्ताओं के वकील प्रशांत भूषण ने आगे कहा कि नरसिंहानंद को इस शर्त पर जमानत मिली थी कि वह नफरत भरे भाषण नहीं देंगे। इसके बाद अदालत ने याचिकाकर्ताओं को जमानत रद्द करने के लिए हाईकोर्ट जाने को कहा।

अदालत ने कहा, “अगर आप सुप्रीम कोर्ट आ सकते हैं तो हाईकोर्ट से जमानत रद्द करने के लिए संपर्क क्यों नहीं करते? हम याचिकाकर्ताओं को उचित उपायों का लाभ उठाने के लिए खुला छोड़ते हैं। हम पहले के आदेश को भी दोहराते हैं कि कानून-व्यवस्था बनाए रखी जाए और सभी अधिकारी इसका पालन सुनिश्चित करें।”

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-16

मुस्लिमों के नरसंहार का आह्वान करने पर रोक लगाए, सुप्रीम कोर्ट पहुंचे पूर्व नौकरशाह; तुरंत सुनवाई की रखी मांग

Delhi News: कई पूर्व नौकरशाहों और सिविल सोसायटी से जुड़े लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर यति नरसिंहानंद और अन्य द्वारा इसी सप्ताह गाजियाबाद में आयोजित की जाने वाली धर्म संसद पर रोक लगाने की मांग की है। कोर्ट की अवमानना से डजुड़ी अपनी याचिका में इन लोगों ने आरोप लगाया है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ऐसा करने में विफल रही है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट की शरण में आना पड़ा है। याचिका में ‘मुसलमानों के नरसंहार’ का आह्वान किए जाने का आरोप भी लगाया गया है।

याचिका दायर करने वाले कुछ पूर्व नौकरशाहों की ओर से पेश हुए वकील प्रशांत भूषण ने देश के मुख्य न्यायाधीश (CJI) जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ से कहा कि इस याचिका को तत्काल सूचीबद्ध किए जाने की आवश्यकता है। इस पर CJI खन्ना ने याचिकाकर्ता के वकील को ई-मेल भेजने का निर्देश दिया है। शीर्ष न्यायालय ने कहा है कि वह इस मामले की सुनवाई करेगा। प्रधान न्यायाधीश खन्ना ने कहा, ‘‘मैं इस पर विचार करूंगा। कृपया ई-मेल भेजें।’’

याचिका में आरोप लगाया गया है कि शीर्ष अदालत ने 2022 में नफरत फैलाने वाले भाषणों के मामलों में अपराधियों के धर्म को देखे बिना स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करने के निर्देश दिए थे। नरसिंहानद पर मुसलमानों के खिलाफ बार-बार नफरत फैलाने वाले भाषण देने के आरोप लगते रहे हैं। प्रशांत भूषण ने कहा कि मुसलमानों के नरसंहार का सार्वजनिक तौर पर आह्वान किया गया है और इस याचिका पर तत्काल सुनवाई की जरूरत है, क्योंकि ‘धर्म संसद’ मंगलवार से शुरू होगी। ‘यति नरसिंहानंद फाउंडेशन’ द्वारा ‘धर्म संसद’ का आयोजन गाजियाबाद के डासना स्थित शिव-शक्ति मंदिर परिसर में मंगलवार से शनिवार तक होना है।

बता दें कि 2022 में शीर्ष अदालत ने सभी सक्षम और उपयुक्त प्राधिकारियों को सांप्रदायिक गतिविधियों और घृणास्पद भाषणों में लिप्त व्यक्तियों या समूहों के खिलाफ स्वत: संज्ञान लेते हुए कार्रवाई करने का निर्देश दिया था। सामाजिक कार्यकर्ताओं और पूर्व नौकरशाहों ने शीर्ष अदालत के इस आदेश की जानबूझकर अवमानना करने का आरोप लगाते हुए गाजियाबाद जिला प्रशासन और उत्तर प्रदेश पुलिस के खिलाफ एक अवमानना ​​याचिका दायर की है।

याचिकाकर्ताओं में कार्यकर्ता अरुणा रॉय, सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी अशोक कुमार शर्मा, पूर्व आईएफएस अधिकारियों देब मुखर्जी एवं नवरेखा शर्मा तथा अन्य शामिल हैं। उत्तराखंड के हरिद्वार में इससे पहले आयोजित ‘धर्म संसद’ में कथित तौर पर नफरत फैलाने वाले भाषण दिए जाने के कारण विवाद खड़ा हो गया था। इस मामले में यति नरसिंहानंद और अन्य सहित कई लोगों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाया गया।

याचिका में यह भी दावा किया गया है कि इस संसद की वेबसाइट और विज्ञापनों में इस्लाम के अनुयायियों के खिलाफ कई सांप्रदायिक बयान शामिल हैं, जो मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा भड़का सकते हैं। 

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-16

सुप्रीम कोर्ट की देश के युवाओं को बड़ी नसीहत, कहा, नशे में डूबने को कूल होना नहीं कहते, इससे बचना चाहिए

Supreme Court News: नशे में डूबने का मतलब कूल होना नहीं है और इससे बचना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक केस की सुनवाई करते हुए देश के युवाओं को यह नसीहत दी। अदालत ने कहा कि दुखद है कि इन दिनों नशा करने या उसकी लत का शिकार होने को कूल होने से जोड़ दिया गया है। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह ने ड्रग तस्करी के मामले की सुनवाई करते हुए यह बात कही। इस केस की जांच एनआईए कर रही है, जिसमें अंकुश विपिन कपूर पर आरोप है कि वह ड्रग तस्करी का नेटवर्क चलाता था। उसने पाकिस्तान से समुद्र के रास्ते बड़े पैमाने पर हीरोइन की तस्करी भारत में कराई थी।

जस्टिस नागरत्ना ने फैसला सुनाते हुए कहा कि नशे की लत का सामाजिक आर्थिक तौर पर और मनोवैज्ञानिक रूप से युवाओं पर बुरा असर पड़ता है। उन्होंने कहा कि यह देश के युवाओं की चमक को ही खत्म करने वाली चीज है। उनका पूरा तेज इससे छिन जाता है। अदालत ने कहा कि नशे की लत से युवाओं को बचाने के लिए पैरेंट्स, समाज और सरकारी एजेंसियों को प्रयास करने होंगे। हमें कुछ गाइडलाइंस भी तय करनी चाहिए, जिसके अनुसार ऐक्शन लिया जाए और युवाओं को इससे बचाया जाए। अदालत ने कहा कि यह चिंता की बात है कि पूरे भारत में ड्रग्स का रैकेट चल रहा है। इसका प्रभाव सभी समाज, आयु और धर्म के लोगों में दिख रहा है।

अदालत ने कहा कि ड्रग्स तस्करी से पैदा हुई रकम का इस्तेमाल देश के दुश्मन हिंसा और आतंकवाद फैलाने में भी करते हैं। जजमेंट में कहा गया कि आज की युवा पीढ़ी को लेकर कहा जाता है कि वे संगत में, पढ़ाई के तनाव में या फिर परिवेश के चलते ऐसा किया जाता है। अदालत ने कहा कि ऐसा करने वाले लोग अकसर बच निकलते हैं और यह चिंता की बात है। बेंच ने कहा कि यह पैरेंट्स की भी जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को सुरक्षित माहौल में रखें। उन्हें भावनात्मक कवच प्रदान करें। जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि बच्चे यदि भावनात्मक रूप से परिवार से जुड़े रहते हैं और उस परिवेश का प्रभाव उन पर रहे तो उनके नशे की लत का शिकार होने की संभावना कम होती है।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-16

जस्टिस शेखर यादव को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने भेजा समन, अल्पसंख्यकों के खिलाफ दिया था विवादित बयान

Delhi News: ‘देश बहुसंख्यकों के हिसाब से चलेगा’ वाला बयान देकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस शेखर कुमार यादव विवादों में घिर गए हैं। हंगामा होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले पर बड़ा एक्शन लिया है। SC कॉलेजियम ने जस्टिस शेखर कुमार यादव को सुप्रीम कोर्ट में पेश होने के लिए समन भेजा है। जस्टिस शेखर कुमार यादव को अपने विवादास्पद बयान पर स्पष्टीकरण देने को भी कहा गया है। गौरतलब है कि जस्टिस शेखर कुमार यादव ने विश्व हिंदू परिषद की लीगल सेल की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में विवादास्पद बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि देश का कानून बहुसंख्यकों की इच्छा के मुताबिक चलेगा।

इंडिया टुडे ने सूत्रों के हवाले से बताया कि देश के मुख्य न्यायधीश जस्टिस संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाला कॉलेजियम इस मामले पर जल्द ही सुनवाई करेगी। खबरों के मुताबिक शीर्ष अदालत के शीतकालीन अवकाश यानी 17 दिसंबर से पहले सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर विचार विमर्श करेगी। इससे पहले 10 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने बयान से जुड़ी मीडिया रिपोर्ट्स का हवाला देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट से रिपोर्ट मांगी थी। शीर्ष अदालत के एक आधिकारिक बयान में कहा गया, “सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के मौजूदा जज जस्टिस शेखर कुमार यादव द्वारा दिए गए भाषण की खबरों पर संज्ञान लिया है। हाइकोर्ट से दूसरी डिटेल भी मांगे गए हैं और मामला विचाराधीन है।”

8 दिसंबर को प्रयागराज में विश्व हिंदू परिषद (VHP) के एक कार्यक्रम में जस्टिस यादव ने समान नागरिक संहिता में बोलते हुए कहा, “यह कानून है। कानून असल में बहुमत के अनुसार ही काम करता है। इसे परिवार या समाज के संदर्भ में देखें। बस वही स्वीकार किया जाएगा जिससे बहुसंख्यक को खुशी और लाभ मिलें।” सोशल मीडिया पर इस बयान को लेकर खूब हंगामा हुआ था। विपक्षी नेताओं ने जज की इस टिप्पणी को विभाजनकारी और असंवैधानिक बताया था।

वहीं कानून जगत से जुड़े लोगों ने भी इस पर गंभीर प्रश्न उठाए थे। वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण और सीपीआई (एम) नेता वृंदा करात ने चीफ जस्टिस संजीव खन्ना को चिट्ठी लिखकर कहा था कि यह टिप्पणी जज के पद की शपथ का उल्लंघन है। बार एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने भी इस टिप्पणी की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया था। इस बीच 55 विपक्षी सांसदों ने पिछले शुक्रवार को राज्यसभा में जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ महाभियोग चलाने की मांग करते हुए एक नोटिस दाखिल किया था।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-13

पूर्व मुख्य न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने अयोध्या फैसले पर जस्टिस नरीमन को दिया जवाब, जानें क्या कहा

Supreme Court News: भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने अयोध्या फैसले पर खुलकर बात की है। उन्होंने कहा कि इस फैसले की आलोचना करने वाले कई लोगों ने एक हजार से ज्यादा पन्नों के फैसले का एक पन्ना भी नहीं पढ़ा है। उन्होंने जस्टिस रोहिंगटन नरीमन के बयान पर भी प्रतिक्रिया दी, जिसमें कहा गया था कि अयोध्या भूमि विवाद पर फैसला देते समय पंथनिरपेक्षता ‘को उचित स्थान नहीं दिया गया था।’

टाइम्स नेटवर्क इंडिया इकोनॉमिक कॉन्क्लेव में शामिल हुए पूर्व जस्टिस चंद्रचूड़ ने जस्टिस नरीमन की टिप्पणियों को लेकर कहा, ‘मैं फैसले का एक पक्ष था, तो यह मेरे काम का हिस्सा नहीं है कि फैसले का बचाव करूं या आलोचना करूं। जब कोई जज किसी फैसले में पार्टी होता है, तो फैसला सार्वजनिक संपत्ति बन जाता है और उसपर दूसरों को बात करनी होती है।’

उन्होंने कहा, ‘खैर, जस्टिस नरीमन ने फैसले की आलोचना की है, तो मैं यह कहना चाहता हूं कि उनकी आलोचना इस तथ्य का समर्थन करती है कि धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत भारत में जीवित हैं। क्योंकि धर्मनिरपेक्षता का एक अहम सिद्धांत अंतरात्मा की स्वतंत्रता है और जस्टिस नरीमन जो कर रहे हैं, वह अपनी अंतरात्मा के जरिए कर रहे हैं।’

उन्होंने कहा, ‘यह तथ्य कि हमारी समाज में ऐसे लोग हैं, जो इन विचारों को बाहर निकालते हैं। यह याद दिलाता है कि देश में धर्मनिरपेक्षता जीवित है। मैं अपने फैसले का बचाव नहीं करना चाहता, क्योंकि साफ है कि मैं अपने फैसले का बचाव नहीं कर सकता। हमने पांच जजों के जरिए अपनी बात रखी है और हर तर्क को पेश किया है। ऐसे में हर न्यायाधीश फैसले का एक हिस्सा है। हमारे लिए यह निर्णय लेने का एक सामूहिक काम है और हम छपे हुए हर शब्द पर अडिग हैं।’

जस्टिस नरीमन के धर्मनिरपेक्षता को लेकर की गई बात पर उन्होंने कहा, ‘यह एक धारणा है और कई और धारणाएं भी होंगी। ऐसे में अदालतें वर्तमान मुद्दों पर फैसला लेती हैं। वे उन मुद्दों पर फैसला लेते हैं, जो देश के सामने हैं। नागरिकों के पास आलोचना करने, चर्चा करने, टिप्पणी करने का अधिकार है। लोकतंत्र में यह सब संवाद की प्रक्रिया का हिस्सा है। यह जस्टिस नरीमन का नजरिया और हर कोई इस नजरिए का सम्मान करता है, लेकिन निश्चित तौर पर यह नजरिया सत्य के एकाधिकार को नहीं दिखाता है। अंतिम शब्द सुप्रीम कोर्टा का होगा।’

जस्टिस नरीमन ने क्या कहा था

पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन ने रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मामले में शीर्ष अदालत के 2019 के निर्णय की आलोचना करते हुए इसे ‘‘न्याय का उपहास’’ बताया, जो पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत के साथ न्याय नहीं करता। न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा, ‘मेरा मानना है कि न्याय का सबसे बड़ा उपहास यह है कि इन निर्णयों में पंथनिरपेक्षता को उचित स्थान नहीं दिया गया।’ न्यायमूर्ति नरीमन ने मस्जिद को ढहाये जाने को गैर कानूनी मानने के बावजूद विवादित भूमि प्रदान करने के लिए न्यायालय द्वारा दिए गए तर्क से भी असहमति जताई।

उन्होंने कहा, ‘आज हम देख रहे हैं कि देशभर में इस तरह के नए-नए मामले सामने आ रहे हैं। हम न केवल मस्जिदों के खिलाफ बल्कि, दरगाहों के खिलाफ भी वाद देख रहे हैं। मुझे लगता है कि यह सब सांप्रदायिक वैमनस्य को जन्म दे सकता है। इस सब को खत्म करने का एकमात्र तरीका यह है कि इसी फैसले के इन पांच पन्नों को लागू किया जाए और इसे हर जिला अदालत और उच्च न्यायालय में पढ़ा जाए। दरअसल, ये पांच पन्ने उच्चतम न्यायालय द्वारा एक घोषणा है जो उन सभी को आबद्ध करता है।’

साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या भूमि विवाद पर फैसला सुनाया था। तब बेंच में तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई, जस्टिस एस बोबड़े, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस अब्दुल नजीर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ शामिल थे।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-13

सुप्रीम कोर्ट ने धार्मिक स्थलों पर अंतिम आदेश पारित करने पर लगाई रोक; जाने क्या है पूरा मामला

Delhi News: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (12 दिसंबर) को एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में अगले आदेश तक देश की अदालतों को धार्मिक स्थलों, विशेषकर मस्जिदों और दरगाहों पर दावा करने संबंधी नए मुकदमों पर विचार करने और लंबित मामलों में कोई भी प्रभावी अंतरिम या अंतिम आदेश पारित करने पर रोक लगा दी है। देश के मुख्य न्यायाधीश (CJI) जस्टिस संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, ‘‘क्योंकि मामला इस अदालत में विचाराधीन है, इसलिए हम यह उचित समझते हैं कि इस अदालत के अगले आदेश तक कोई नया मुकदमा दर्ज न किया जाए।’’

CJI संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस के वी विश्वनाथन की पीठ के इस निर्देश से विभिन्न हिंदू पक्षों द्वारा दायर लगभग 18 मुकदमों में कार्यवाही पर रोक लग गई है। इन मुकदमों में वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद और संभल में शाही जामा मस्जिद समेत 10 मस्जिदों की मूल धार्मिक प्रकृति का पता लगाने के लिए सर्वेक्षण का अनुरोध किया गया है।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने क्या कहा था

बड़ी बात यह है कि जस्टिस खन्ना की अगुवाई वाली पीठ ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा ढाई साल पहले इस मामले में दी गई अनुमति को पलटते हुए उस पर रोक लगा दिया है। ढाई साल पहले 21 मई, 2022 को तत्कालीन चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ के सामने यही प्रश्न आया था, तब एक मौखिक टिप्पणी में चंद्रचूड़ ने माना था ऐसे विवादित पूजा स्थलों का सर्वेक्षण 1991 के पूजा स्थल अधिनियम का उल्लंघन नहीं करता है। जस्टिस चंद्रचूड़ के इस मौखिक टिप्पणी ने तब प्रभावी रूप से वाराणसी और मथुरा से लेकर संभल और अजमेर तक 10 से अधिक मामलों में दीवानी मुकदमों के लिए कानूनी रास्ता तैयार कर दिया था।

जस्टिस संजीव खन्ना का क्या ऑब्जर्वेशन?

तब पीठ ने ये भी कहा था कि प्रक्रियात्मक साधन के रूप में किसी स्थान के धार्मिक चरित्र का पता लगाना अधिनियम की धारा 3 और 4 के प्रावधानों का उल्लंघन नहीं हो सकता है। कोर्ट ने तब कहा था कि ये ऐसे मामले हैं जिन पर हम अपने आदेश में कोई राय नहीं देंगे। गुरुवार (12 दिसंबर) को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष फिर से यही अनिवार्य प्रश्न आया और तब भारत के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अगुवाई वाली पीठ ने अगले आदेश तक ऐसे मामलों में अदालतों को प्रभावी आदेश पारित करने से रोक दिया।

चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली विशेष पीठ छह याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिनमें वकील अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर मुख्य याचिका भी शामिल थी। उपाध्याय ने याचिका में उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के विभिन्न प्रावधानों को चुनौती दी है। संबंधित कानून के अनुसार, 15 अगस्त, 1947 को विद्यमान उपासना स्थलों का धार्मिक स्वरूप वैसा ही बना रहेगा, जैसा वह उस दिन था। यह किसी धार्मिक स्थल पर फिर से दावा करने या उसके स्वरूप में बदलाव के लिए वाद दायर करने पर रोक लगाता है। अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद से संबंधित विवाद को हालांकि इसके दायरे से बाहर रखा गया था।

कई प्रतिवाद याचिकाएं हैं, जिनमें सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने और उन मस्जिदों की वर्तमान स्थिति को बनाए रखने के लिए 1991 के कानून के सख्त कार्यान्वयन का अनुरोध किया गया है, जिन्हें हिंदुओं ने इस आधार पर पुनः वापस किए जाने का अनुरोध किया है कि आक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त किए जाने से पहले ये मंदिर थे। पीठ ने कहा, ‘‘हम 1991 के अधिनियम की शक्तियों, स्वरूप और दायरे की पड़ताल कर रहे हैं।’’ पीठ ने अन्य सभी अदालतों से इस मामले में दूर रहने को कहा। इसने कहा कि उसके अगले आदेश तक कोई नया वाद दायर या पंजीकृत नहीं किया जाएगा और लंबित मामलों में, अदालतें उसके अगले आदेश तक कोई ‘‘प्रभावी अंतरिम या अंतिम आदेश’’ पारित नहीं करेंगी।

मामले में एक हिन्दू पक्ष की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता जे साई दीपक ने अन्य सभी अदालतों पर रोक लगाने वाले आदेश का विरोध किया और कहा कि ऐसा निर्देश देने से पहले सभी पक्षों को सुना जाना चाहिए था। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि क्योंकि उच्चतम न्यायालय बड़े मुद्दे पर सुनवाई कर रहा है, इसलिए अदालतों से कोई आदेश पारित न करने को कहना स्वाभाविक है। पीठ ने कहा कि यदि पक्षकार जोर देते हैं तो मामला उच्च न्यायालय भेजा जा सकता है।

इसने पूछा, ‘‘क्या निचली अदालतें उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर जा सकती हैं?’’ पीठ ने कहा कि उच्चतम न्यायालय पहले से ही कानून की वैधता पर विचार कर रहा है। न्यायालय ने कहा कि केंद्र के जवाब के बिना मामले पर फैसला नहीं किया जा सकता। इसने सरकार से चार सप्ताह के भीतर याचिकाओं पर जवाब दाखिल करने को कहा। न्यायालय ने केंद्र द्वारा याचिकाओं पर जवाब दाखिल किए जाने के बाद संबंधित पक्षों को भी प्रत्युत्तर दाखिल करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया है।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-12

सुप्रीम कोर्ट ने देशभर की अदालतों के लिए जारी किया 8 सूत्रों वाला फॉर्मूला, मनमाना गुजारा भत्ता तय करने पर लगेगी रोक

Delhi News: अतुल सुभाष खुदकुशी केस ने पूरे देश को झकझोर दिया है। सोशल मीडिया पर जबरदस्त आक्रोश है। 34 साल के सुभाष बेंगलुरु में एक प्राइवेट कंपनी में इंजीनियर थे। उन्होंने मरने से पहले 24 पन्ने का नोट लिखा और 80 मिनट का वीडियो संदेश रिकॉर्ड किया जिसमें उन्होंने अपना दर्द बयां किया। उन्होंने अपनी मौत के लिए पत्नी की प्रताड़ना के साथ-साथ फैमिली कोर्ट की जज को भी जिम्मेदार बताया जिन्होंने कथित तौर पर केस सेटलमेंट के लिए उनसे 5 लाख रुपये की मांग की थी।

सुभाष की 5 साल पहले शादी हुई थी और उनका एक 4 साल का बच्चा भी था। फैमिली कोर्ट ने उन्हें बच्चे के गुजारा के लिए पत्नी को हर महीने 40 हजार रुपये देने का आदेश दिया था। पत्नी निकिता सिंघानिया ने उनके और उनके परिवार वालों के खिलाफ दहेज उत्पीड़न समेत 9 केस दर्ज करा रखे थे। सुभाष की मौत के बाद सोशल मीडिया पर तमाम लोग आक्रोश जता रहे और आरोप लगा रहे हैं तलाक के मामलों में कई बार अदालतें मनमाने तरीके से मैंटिनेंस की रकम तय कर रही हैं।

अतुल सुभाष मामले पर आक्रोश के बीच सुप्रीम कोर्ट ने गुजारा भत्ता तय करने के लिए देशभर की अदालतों को 8 सूत्रों वाला फॉर्म्युला दिया है। शीर्ष अदालत ने कहा कि ये सुनिश्चित करना जरूरी है कि स्थायी गुजारा भत्ता की राशि पति को दंडित न करे। ये पत्नी के लिए एक सम्मानजनक जीवन स्तर सुनिश्चित करने के मकसद से बनाई जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की इस गाइडलाइंस के बाद ‘चाहे भीख मांगो, उधार लो या फिर चोरी करो, मैंटिनेंस तो देना ही होगा’ जैसे फैसलों पर लगाम लगने की उम्मीद है।

सुप्रीम कोर्ट ने अदालतों के लिए 8 पॉइंट वाली गाइडलाइंस तय कर दी है, जिसके आधार पर उन्हें गुजारा भत्ता की रकम को तय करना होगा। कोर्ट ने कहा, ‘यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि स्थायी गुजारा भत्ता की राशि पति को दंडित न करे बल्कि पत्नी के लिए एक सम्मानजनक जीवन स्तर सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बनाई जानी चाहिए।’ वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2020 में ‘रजनीश बनाम नेहा’ केस में भी गुजारे भत्ते को लेकर अदालतों के लिए गाइडलाइंस तय किए थे। आइए नजर डालते हैं कि शीर्ष अदालत ने अपने ताजा फैसले में गुजारा भत्ता तय करने के लिए किन 8 पैमानों को सेट किया है।

  • पति और पत्नी की सामाजिक और आर्थिक स्थिति
  • भविष्य में पत्नी और बच्चों की बुनियादी जरूरतें
  • दोनों पक्षों की योग्यता और रोजगार
  • आय और संपत्ति के साधन
  • ससुराल में रहते हुए पत्नी का जीवन स्तर
  • क्या उसने परिवार की देखभाल के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी है?
  • जो पत्नी काम नहीं कर रही है, उसके लिए कानूनी लड़ाई के लिए उचित राशि
  • पति की आर्थिक स्थिति, उसकी कमाई और गुजारा भत्ता के साथ अन्य जिम्मेदारियां

#delhiNews #supremeCourtNews

संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-12

रोहड़ू में सरेआम उड़ी सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियां, देवलुओं ने काटा बकरा; सुरेंद्र पपटा ने दर्ज करवाई शिकायत

Shimla News: हिमाचल में बकरों की बलि के सामने लगातार सामने आते जा रहे है। जबकि हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक स्थान पर सार्वजनिक रूप से पशु बलि देने पर प्रतिबंध लगा रखा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की सरेआम धज्जियां उड़ाई जा रही है।

पुलिस और प्रशासन हुआ कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की पालना सुनिश्चित नहीं कर रहे है। सरकार पूरी तरह चुप है। कोई भी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध नजर नहीं आ रहा है।

कुछ दिन पहले मण्डी के चैल चौक में सरेआम सैकडों लोगों के सामने बीच बाजार बकरे की बलि के बाद अब रोहड़ू से भी ऐसा ही मामला सामने आया है। जहां एक बकरे को सरेआम पूल पर काटा गया। जिसका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया है।

वीडियो में साफ साफ दिख रहा है कि देवता के साथ आए कुछ लोग सरेआम रोहड़ू पुल पर बकरे को लेकर आते है और बड़ी बेरहमी से उसको काट देते है। पूल पर खून ही खून हो जाता है और लोग उसको रगड़ कर एक साइड कर देते है। इस खौफनाक वीडियो से इलाके में दहशत का माहौल है।

इस मामले सामाजिक कार्यकर्ता सुरेंद्र पपटा ने पुलिस को शिकायत भेजी है। उन्होंने कहा कि इस तरह बकरे की बलि देना नैतिक और सामाजिक रूप से गलत है और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को अवहेलना है। सुरेंद्र पपटा ने कहा कि इस मामले में आरोपियों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्यवाही अमल में लाई जाए तथा भविष्य में निगरानी बढ़ाई जाए ताकि दोबारा ऐसा अपराध ना हो।

आपको बता दें कुछ दिन पहले ऐसा ही मामला मंडी के चैल चौक से भी निकलकर सामने आए था। जहां एक बकरे को सैकड़ों लोगों के सामने काटा गया। उस मामले में पुलिस ने तत्काल FIR दर्ज की थी और मामले की जांच जारी है। अब देखना होगा शिमला पुलिस इस मामले में क्या कार्यवाही करती है।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-11

दहेज उत्पीड़न मामलों में कानून का दुरुपयोग रोकने के लिए अदालतों को बरतनी चाहिए सावधानी; सुप्रीम कोर्ट

Delhi News: उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि दहेज उत्पीड़न के मामलों में अदालतों को कानून का दुरुपयोग रोकने के लिए सावधानी बरतनी चाहिए और पति के सगे-संबंधियों को फंसाने की प्रवृत्ति को देखते हुए निर्दोष परिवार के सदस्यों को अनावश्यक परेशानी से बचाना चाहिए। खास बात है कि अदालत की टिप्पणी ऐसे समय पर आई है, जब सॉफ्टवेयर इंजीनियर अतुल सुभाष की खुदकुशी का मामला तूल पकड़ रहा है।

न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि वैवाहिक विवाद से उत्पन्न आपराधिक मामले में परिवार के सदस्यों की सक्रिय भागीदारी को इंगित करने वाले विशिष्ट आरोपों के बिना उनके नाम का उल्लेख शुरू में ही रोक दिया जाना चाहिए।

पीठ ने कहा, ‘न्यायिक अनुभव से यह सर्वविदित तथ्य है कि वैवाहिक विवाद उत्पन्न होने की स्थिति में अक्सर पति के सभी परिजनों को फंसाने की प्रवृत्ति होती है। ठोस सबूतों या विशिष्ट आरोपों के बिना सामान्य प्रकृति के और व्यापक आरोप आपराधिक अभियोजन का आधार नहीं बन सकते हैं।’

इसलिए, शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में अदालतों को कानूनी प्रावधानों और कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने एवं परिवार के निर्दोष सदस्यों को अनावश्यक परेशानी से बचाने के लिए सावधानी बरतनी चाहिए।

न्यायालय ने यह टिप्पणी तेलंगाना उच्च न्यायालय के उस आदेश को खारिज करते हुए की, जिसमें एक महिला द्वारा अपने पति, उसके माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों के खिलाफ दर्ज दहेज उत्पीड़न के मामले को खारिज करने से इनकार कर दिया गया था।

शीर्ष अदालत ने कहा कि संशोधन के माध्यम से भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में धारा 498ए को शामिल किए जाने का उद्देश्य महिला पर उसके पति और उसके परिजनों द्वारा की जाने वाली क्रूरता को रोकना है, ताकि राज्य द्वारा त्वरित हस्तक्षेप सुनिश्चित किया जा सके।

पीठ ने कहा, ‘हालांकि, हाल के वर्षों में देश भर में वैवाहिक विवादों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, साथ ही विवाह संस्था के भीतर कलह और तनाव भी बढ़ रहा है, जिसके परिणामस्वरूप, आईपीसी की धारा 498ए (पत्नी के खिलाफ पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता) जैसे प्रावधानों का दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, ताकि पत्नी द्वारा पति और उसके परिवार के खिलाफ व्यक्तिगत प्रतिशोध को बढ़ावा दिया जा सके।’

न्यायालय ने कहा कि वैवाहिक विवादों के दौरान अस्पष्ट और सामान्य आरोपों की यदि जांच नहीं की जाती है, तो कानूनी प्रक्रियाओं का दुरुपयोग होगा और पत्नी एवं उसके परिवार द्वारा दबाव डालने की रणनीति को बढ़ावा मिलेगा।

इसने यह भी कहा, ‘हम एक पल के लिए भी यह नहीं कह रहे हैं कि आईपीसी की धारा 498ए के तहत क्रूरता झेलने वाली किसी भी महिला को चुप रहना चाहिए और शिकायत करने या कोई आपराधिक कार्यवाही शुरू करने से खुद को रोकना चाहिए।’ पीठ ने कहा कि (उसका सिर्फ यह कहना है कि) इस तरह के मामलों को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए।

पीठ ने कहा कि धारा 498ए को शामिल करने का उद्देश्य मुख्य रूप से दहेज के रूप में किसी संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूतियों की अवैध मांग के कारण ससुराल में क्रूरता का शिकार होने वाली महिलाओं की सुरक्षा करना है। पीठ ने कहा, ‘हालांकि, कभी-कभी इसका दुरुपयोग किया जाता है, जैसा कि वर्तमान मामले में हुआ।’

शीर्ष अदालत ने प्राथमिकी खारिज करते हुए कहा कि पत्नी द्वारा पति और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ व्यक्तिगत प्रतिशोध के कारण एवं रंजिश की वजह से शिकायत दर्ज कराई गई थी।

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संपादक: मोहित ठाकुरrightnewshindi@rightnewsindia.com
2024-12-10

‘जय बांग्ला’ अब नहीं रहा राष्ट्रीय नारा, सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया फैसला; शेख मुजीबुर्रहमान की निशानियां की जा रही खत्म

Bangladesh News: बांग्लादेश में एक के बाद एक शेख मुजीबुर्रहमान की निशानियों को मिटाया जा रहा है। पहले करेंसी नोटों से शेख मुजीबुर्रहमान की तस्वीर हटाई गई और अब ‘जय बांग्ला’ को राष्ट्रीय नारे के दर्जे से भी हटा दिया गया है। यह कदम अंतरिम सरकार द्वारा हाई कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को चुनौती देने के बाद उठाया गया। दरअसल ‘जय बांग्ला’ नारा 1971 के स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक रहा है और इसे बांग्लादेश के पहले प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान ने जन-जन में लोकप्रिय बनाया। 2020 में शेख हसीना सरकार के दौरान हाई कोर्ट ने इसे राष्ट्रीय नारा घोषित किया था। अदालत ने कहा था कि सरकारी कार्यक्रमों, राष्ट्रीय दिवसों और शैक्षिक संस्थानों में इसका उपयोग अनिवार्य रूप से किया जाए।

सुप्रीम कोर्ट ने लगाई हाई कोर्ट के फैसले पर रोक

मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट की अपील डिवीजन ने हाई कोर्ट के इस फैसले पर रोक लगाते हुए ‘जय बांग्ला’ को राष्ट्रीय नारे का दर्जा समाप्त कर दिया। मुख्य न्यायाधीश सैयद रिफात अहमद की अध्यक्षता वाली चार सदस्यीय बेंच ने यह निर्णय लिया। अतिरिक्त अटॉर्नी जनरल अनिक आर हक ने कहा, “‘जय बांग्ला’ अब राष्ट्रीय नारे के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं रहेगा।”

पिछले कुछ महीनों में बांग्लादेश के राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रतीकों में बदलाव तेजी से हुआ है। शेख मुजीबुर्रहमान की तस्वीर को पहले ही बैंक नोटों से हटा दिया गया था। अब ‘जय बांग्ला’ पर हुई कार्रवाई से यह सवाल उठने लगा है कि क्या बांग्लादेश की नई अंतरिम सरकार शेख मुजीब की विरासत को खत्म करने की कोशिश कर रही है?

हसीना के जाते ही बदलने लगी बांग्लादेश की तस्वीर

5 अगस्त को शेख हसीना सरकार के पतन के बाद से बांग्लादेश में बड़े पैमाने पर बदलाव देखे जा रहे हैं। ‘जय बांग्ला’ को हटाए जाने को इस बदलाव का अहम हिस्सा माना जा रहा है। हालांकि, यह नारा न केवल राजनीतिक पहचान था बल्कि देश के स्वतंत्रता संग्राम का भावनात्मक प्रतीक भी था।

बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के इस कदम ने देश की राजनीति में नई बहस को जन्म दिया है। मुजीब समर्थक इसे स्वतंत्रता संग्राम और उनकी विरासत के खिलाफ साजिश मान रहे हैं। दूसरी ओर, सरकार इसे ‘न्यायिक प्रक्रिया’ का हिस्सा बता रही है। क्या ‘जय बांग्ला’ का हटना महज एक कानूनी निर्णय है, या यह इतिहास बदलने की एक सोची-समझी रणनीति? यह सवाल बांग्लादेश के राजनीतिक भविष्य के लिए बेहद अहम है।

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