काली मूछ: बालाघाट की सुगंधित धान किस्म को मिलेगा जीआई टैग, आदिवासियों द्वारा है संरक्षित
Madhya Pradesh News: मध्य प्रदेश का बालाघाट जिला धान की खेती के लिए मशहूर है। यहां की काली मूछ धान की देशी किस्म अपनी सुगंध और स्वाद के लिए जानी जाती है। उप संचालक कृषि फूल सिंह मालवीय ने बताया कि काली मूछ को जीआई टैग दिलाने की कोशिश चल रही है। यह किस्म आदिवासियों द्वारा संरक्षित है। इससे पहले चिन्नौर चावल को जीआई टैग मिल चुका है। यह बालाघाट की खेती को वैश्विक पहचान दिलाएगा।
काली मूछ की खासियत
काली मूछ धान की देशी नस्ल है। यह गैर-बासमती सुगंधित चावल है। इसका दाना बारीक और स्वाद में मुलायम होता है। पकाने के बाद यह नरम और स्वादिष्ट बनता है। इसमें पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में हैं। उप संचालक फूल सिंह मालवीय ने बताया कि यह ऊंची किस्म है। इसकी खेती बालाघाट के आदिवासी इलाकों में होती है। इसकी सुगंध और गुणवत्ता इसे खास बनाती है।
जीआई टैग की दौड़
काली मूछ को जीआई टैग दिलाने के लिए प्रशासन सक्रिय है। फूल सिंह मालवीय ने कहा कि यह किस्म बालाघाट की जन्मस्थली से जुड़ी है। जीआई टैग मिलने से इसकी वैश्विक पहचान बनेगी। पहले चिन्नौर चावल को यह दर्जा मिला था। अब काली मूछ की बारी है। इससे स्थानीय किसानों को बेहतर कीमत मिलेगी। साथ ही, उनकी मेहनत को अंतरराष्ट्रीय मंच पर सम्मान मिलेगा। यह किसानों के लिए गर्व की बात है।
आदिवासियों का योगदान
बालाघाट के जंगल क्षेत्रों में बसे आदिवासियों ने काली मूछ को संरक्षित किया। उनकी पीढ़ियों ने इस देशी नस्ल को बचाए रखा। उप संचालक कृषि ने बताया कि आदिवासी समुदाय ने इसकी खेती को जीवित रखा। उनकी मेहनत से यह किस्म आज भी लहलहा रही है। यह धान न केवल स्वाद में अनोखा है, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर भी है। आदिवासियों का यह प्रयास सराहनीय है।
बालाघाट का धान उत्पादन
बालाघाट को मध्य प्रदेश का धान का कटोरा कहा जाता है। यहां की मिट्टी और जलवायु धान के लिए अनुकूल है। काली मूछ के अलावा चिन्नौर और अन्य देशी किस्मों की खेती होती है। हाइब्रिड किस्में भी लोकप्रिय हैं। जिले में धान का उत्पादन पूरे प्रदेश में सबसे ज्यादा है। किसान दोनों तरह की किस्मों को अपनाते हैं। यह क्षेत्र कृषि के लिए अनुकूल माना जाता है।
अन्य क्षेत्रों में खेती
काली मूछ की खेती सिर्फ बालाघाट तक सीमित नहीं है। मध्य प्रदेश के चंबल क्षेत्र में भी इसे उगाया जाता है। छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में भी यह किस्म देखने को मिलती है। इसकी मांग इसके स्वाद और सुगंध के कारण बढ़ रही है। किसान इसे अपनाकर अपनी आय बढ़ा रहे हैं। यह किस्म क्षेत्रीय कृषि को नई दिशा दे रही है।
चिन्नौर की सफलता
बालाघाट के चिन्नौर चावल को पहले ही जीआई टैग मिल चुका है। इसने क्षेत्र को वैश्विक पहचान दिलाई। उप संचालक ने बताया कि चिन्नौर की तरह काली मूछ भी इस मुकाम को हासिल कर सकती है। चिन्नौर की सफलता ने किसानों का हौसला बढ़ाया है। अब काली मूछ के लिए भी यही उम्मीद है। यह टैग स्थानीय उत्पादों को ब्रांड वैल्यू देता है।
पोषक तत्वों से भरपूर
काली मूछ में पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में हैं। यह देशी नस्ल होने के कारण स्वास्थ्यवर्धक है। इसका बारीक दाना और मुलायम स्वाद इसे खास बनाता है। उप संचालक के अनुसार, यह धान रोग प्रतिरोधक भी है। इसकी खेती में कम रासायनिक उर्वरकों की जरूरत पड़ती है। यह पर्यावरण के लिए भी अनुकूल है। किसान इसे उगाकर स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों की रक्षा कर रहे हैं।
किसानों की मेहनत
बालाघाट के किसान काली मूछ की खेती में मेहनत करते हैं। उनकी मेहनत से यह किस्म जीवित है। उप संचालक ने बताया कि आदिवासी किसान इसे संरक्षित करते हैं। जीआई टैग मिलने से उनकी मेहनत को सम्मान मिलेगा। यह टैग उनकी आय बढ़ाएगा। साथ ही, उनकी फसल को वैश्विक बाजार में जगह मिलेगी। यह किसानों के लिए एक नई शुरुआत होगी।
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