ठंड से नहीं मरते शब्द
वे मर जाते हैं साहस की कमी से
कई बार मौसम की नमी से
मर जाते हैं शब्द
मुझे एक बार एक ख़ूब लाल
पक्षी जैसा शब्द
मिल गया था गाँव के कछार में
मैं उसे ले आया घर
पर ज्यों ही वह पहुँचा चौखट के पास
उसने मुझे एक बार
एक अजब-सी कातर दृष्टि से देखा
और तोड़ दिया दम
तब मैं डरने लगा शब्दों से
मिलने पर अक्सर काट लेता था कन्नी
कई बार मैं मूँद लेता था आँख
जब देखता था कोई चटक रंगों वाला
रोंएदार शब्द बढ़ा आ रहा है मेरी तरफ़
फिर धीरे-धीरे इस खेल में
मुझे आने लगा मज़ा
एक दिन मैंने बिल्कुल अकारण
एक ख़ूबसूरत शब्द को दे मारा पत्थर
जब वह धान के पुआल में
साँप की तरह दुबका था
उसकी सुंदर चमकती हुई आँखें
मुझे अब तक याद हैं
अब इतने दिनों बाद
मेरा डर कम हो गया है
अब शब्दों से मिलने पर
हो ही जाती है पूछापेखी
अब में जान गया हूँ उनके छिपने की
बहुत-सी जगहें
उनके बहुत-से रंग
मैं जान गया हूँ
मसलन में जान गया हूँ
कि सबसे सरल शब्द वे होते हैं
जो होते हैं सबसे काले और कत्थई
सबसे जोखिम भरे वे जो हल्के पीले
और गुलाबी होते हैं
जिन्हें हम बचाकर रखते हैं
अपने सबसे भारी और दुखद क्षणों के लिए
अक्सर वही ठीक मौक़े पर
लगने लगते हैं अश्लील
अब इसका क्या करूँ
कि जो किसी काम के नहीं होते
ऐसे बदरंग
और कूड़े पर फेंके हुए शब्द
अपनी संकट की घड़ियों में
मुझे लगे हैं सबसे भरोसे के क़ाबिल
अभी कल ही की बात है
अँधेरी सड़क पर
मुझे अचानक घेर लिया
पाँच-सात स्वस्थ और सुंदर शब्दों ने
उनके चेहरे ढँके हुए थे
पर उनके हाथों में कोई तेज़
और धारदार-सी चीज़ थी
जो चमक रही थी बुरी तरह
अपनी तो भूल गई सिट्टी-पिट्टी
पसीने से तर
मैं कुछ देर खड़ा रहा उनके सामने
अवाक्
फिर मैं भागा
अभी मेरा एक पाँव हवा में उठा ही था
कि न जाने कहाँ से एक कुबड़ा-सा
हाँफता हुआ आया
और बोला—‘चलो, पहुँचा दूँ घर!’
केदारनाथ सिंह
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